शनिवार, 29 जनवरी 2011
वाणी का जादू
केवल मनुष्य ही एक ऐसा जीव है, जिसे भगवान ने वाणी को मन मुताबिक ढालने का वरदान दिया है। वाणी हमारे विचारों को पवित्र और दूषित भी कर सकती है। इसलिए इस वाणी के उपहार का सदुपयोग करने का सुझाव बहुत से संतों ने दिया है...
राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ जौ चाहसि उजियार॥
तुलसी दास जी कहते हैं... जीभ ऐसी दरवाजे की देहरी है जहाँ पर राम नाम का "मणि दीप" रख देने से बाहर और भीतर दोनों का अँधेरा मिट जाता है और इस तरह जहाँ भी चाहो, वहां उजाला हो जाता है। इसका अर्थ वाणी की सच्चाई, सफाई, मधुरता और राम नाम के ध्यान और जाप से तो है ही, बल्कि ऐसा दीप रख पाने के मन के संकल्प और साहस से भी है।
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय॥
कबीर दास जी कहते हैं... मन के अहंभाव को खोकर ऐसी वाणी बोलनी चाहिए कि अपने को तो शान्ति मिले ही, दूसरे भी प्रसन्न हो जाएँ।
रविवार, 16 जनवरी 2011
अहंकार ने हराया, स्वार्थ ने डुबोया
इतिहास गवाह है कि अहंकार रावण का भी नहीं रहा।
सच भी है-लोग मानते भी हैं-स्वीकारते भी हैं।
बावजूद भूल पर भूल करते हैं।
कम ही लोग होते हैं, जो लक्ष्मी-सरस्वती के दर्शन के बाद भी सामान्य रह पाते हैं।
वर्ना, अहंकार में चूर लोग खुद को औरों से अलग समझने लगते हैं।
यहीं से शुरू होता है पतन का रास्ता।
क्यों हम पतन का रास्ता चुनें?
क्यों यह मानें कि मृत्यु व दुख से हम परे हैं?
शनिवार, 15 जनवरी 2011
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